लाल बहादुर वर्मा

राजनीति | स्मृति शेष

लाल बहादुर वर्मा: ‘जन साहित्य और जन इतिहास का सबसे बड़ा बाबू’ और ‘मास्टर’

लाल बहादुर वर्मा सत्य की समझ, अन्याय के विरोध और मानवीयता के समर्थन को जरूरी मानते थे. लेकिन इस त्रिभुज के बीचोंबीच एक दिल का निशान भी था

शेखर पाठक | 31 मई 2021 | फोटो: जनपथ.कॉम

लाल बहादुर वर्मा (10 जनवरी 1938, गोरखपुर – 16 मई 2021, देहरादून) को अगर एक शब्द में बयान करना हो तो मैं उन्हें मुस्कुराहट कहना चाहूंगा. यह उनकी सृजनशीलता थीं – अनेक प्रकार की और अनेक तरह से बोलती हुई. यह मुस्कुराहट मानवीय ऊष्मा से आगे समस्त जीव प्रजातियों की बुनियादी एकता पर भी नजर डालती थी. 84 साल की उम्र में भी वे पदार्थवादी थे, पर एक स्वाभाविक मासूमियत से भरे हुये.

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पूर्वांचल के सामान्य परिवार का बच्चा, जो छात्र संध का अध्यक्ष बना तो शिक्षक संध का भी. कर्मचारी भी उन्हें अपना नेता मानते रहे. लाल बहादुर वर्मा की मूल कामना थी कि सभी छात्र, शिक्षक और कर्मचारी लड़ाकू बनें ताकि जनता लड़ाकू बन सके. वे गोरखपुर, लखनऊ, तथा सारबाॅन विश्वविद्यालय से पढे़. सारबाॅन में उन्हें सुप्रसिद्ध इतिहासकार-दार्शनिक रेमो आरों जैसे शिक्षक मिले, जिनके निर्देशन में उन्होंने ‘इतिहास लेखन की समस्याओं’ पर शोध किया. आरों के सम्पर्क और शिक्षण ने उन्हें इतिहास के विद्यार्थी की जिम्मेदारियों का भान कराया.

आरों ने उन्हें अपनी भाषा के इस्तेमाल का मर्म समझाया. यह किसी और भाषा का निषेध नहीं था. पेरिस के अकादमिक जीवन को छोड़कर वे देश लौटे. उन्होंने डाक्टरेट ‘ऐंग्लो इण्डियन्स’ (गोरखपुर विवि) पर अंग्रेजी में लिखी तो सारबोन की थीसिस फ्रान्सीसी में. लेकिन अपनी शेष सभी किताबें हिन्दी में लिखी. अंग्रेजी तथा फ्रान्सीसी से उन्होंने बहुत साहित्य हिन्दी में अनुवाद किया.

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एक शिक्षक, शोध निर्देशक तथा प्रयोगशील पाठ्यक्रम निर्माता के रूप में उन्हें गोरखपुर, मणिपुर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के साथ अन्यत्र भी याद किया जाता रहेगा, जहां उन्होंने इतिहास दर्शन तथा स्थानीय या क्षेत्रीय इतिहास को पाठ्यक्रम में जुड़वाया.

उन्होंने सबसे पहले ‘भंगिमा’ जैसी पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया. गोरखपुर तब सृजन केन्द्र बन रहा था. ‘संचेतना’ जैसा नाट्य और सांस्कृतिक संगठन बनाया. पत्रिकायें, नाटक, चित्र प्रदर्शनियां, संगोष्ठियां और तरह तरह के सम्वाद. यात्रा फिर ‘इतिहास बोध’ की ओर आई, जो हाल तक प्रकाशित होती रही. इतिहास अध्ययन तथा इतिहास निर्माण के लिये पुस्तिकायें या प़त्रक निकालते रहे. ‘संधान’ से भी वे जुड़े थे. प्रेमचन्द, राहुल सांकृत्यायन, बाबा नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल या अदम गौंडवी के स्मृति समारोह करने की हिम्मत उनमें और उनके साथियों में थी. वे साहित्य, इतिहास और संघर्ष के बीच के पुल बने.

फिर उन्होंने सरल हिन्दी में मौलिक किताबें लिखने का सिलसिला चलाया. ‘यूरोप का इतिहास’, ‘विश्व इतिहास की झलक’, ‘इतिहासः क्यों-क्या-कैसे’, ‘अधूरी क्रांतियों का इतिहास बोध’, ‘क्रांतियां तो होंगी ही’, ‘इतिहास के बारे में’, ‘कांग्रेस के सौ साल’, ‘अपने को गंभीरता से लें’, ‘भारत की जनकथा’, ‘मानव मुक्तिकथा’ आदि अनेक किताबें लिखी. ये लोकप्रिय हुईं और अनेक संस्करणों में निकलीं. उनकी किताबें राहुल सांकृत्यायन की किताबों की याद इस अर्थ में दिलाती हैं कि वे जन जागरण का लक्ष्य लिये होती थीं.

उनकी तीन औपन्यासिक और दो आत्मकथात्मक किताबें खूब चर्चा में रहीं. ‘उत्तर पूर्व’, ‘मई अड़सठ, पेरिस’ और ‘जिन्दगी ने एक दिन कहा’ उनके तीन उपन्यास हैं. पहली रचना उनके मणिपुर के अनुभवों पर आधारित थी. दूसरी पेरिस के छात्र विद्रोह पर, जिसकी ऊर्जा और अनुगूंज को वे पेरिस प्रवास में सुनते और गुनते रहे थे. पेरिस की 1789, 1871 और 1968 की घटनायें उस शहर और देश की जीवन्तता और बेचैनी का संकेत देतीं थीं, जिन पर उन्होंने बड़ी अनुभव सम्पन्नता से लिखा. यह इतिहास को महसूस कर लिखने जैसा था. तीसरी रचना भोपाल गैस काण्ड पर थी.

उनकी आत्मकथा का पहला खण्ड है ‘जीवन प्रवाह में बहते हुये’ और दूसरा ‘बुतपरस्ती मेरा इमान नहीं’. बहुत खुली है उनकी आत्मकथा. इसका ताल्लुक भी उनकी मुस्कुराहट यानी खुलेपन से है. दो खण्ड कम से कम 7-8 दशकों के बहुत से आयाम हमारे सामने रखते हैं.

इसके साथ उनका योगदान सचेष्ठ और सक्रिय अनुवादक के रूप में भी रहा. उन्होंने अनेक साहित्यिक और ऐतिहासिक किताबों का हिन्दी अनुवाद किया. उनमें ऐरिक हाब्सबाम, विक्टर ह्यूगो, जैक लंदन, आर्थर मारविक, हावर्ड फास्ट, हावर्ड जिन, बाॅब डिलन तथा क्रिस हर्मन आदि की रचनायें थीं.

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वे तरह तरह के खनिजों से बने व्यक्ति थे. अपने होने की कुछ मिश्र धातुयें उन्होंने खुद बनाई थीं. जैसे प्रकृति प्रेम, पर्यावरण बेचैनी, उपभोग की अति की निरर्थकता उन्हें ‘मठी मार्क्सवादियों’ से अलग करती है. इसलिये उनकी मुख्य रुचि तमाम मुद्दों के लिये मुहिम, जन जागरण और जनान्दोलनों की तैयारी की रही. जन इतिहास की वकालत इसीलिये वे ताजिन्दगी करते रहे. सत्य को समझना और उसका साथ देना, अन्याय का विरोध करना, मानवीयता का पक्ष लेना वे जरूरी मानते थे. इस त्रिभुज के बीचोंबीच एक दिल का निशान होता था. यानी वे इसे मुहब्बत से जोड़ते थे.

देश या विदेश में सैकड़ों ऐसे छात्र, शिक्षक, अधिकारी, पत्रकार, रचनाकार और नागरिक मिल जायेंगे जिनको लल्दा (यह नाम उन्हें हम सबकी ओर से अजय रावत ने दिया था) ने अपनी मुहब्बत से विचार और कार्यक्रमों से जोड़ा. ये तमाम लोग अनेक सामाजिक, आर्थिक या धार्मिक पृष्ठभूमियों से आये थे और वे सभी फिर हम-कदम हो गये.

लल्दा अपने को इतिहास चेतना का प्रचारक मानते थे. कभी हम कहते थे कि प्रचारकों ने तो इस देश में तार्किकता को खारिज कर साम्प्रदायिकता को पाल-पोस लिया है. तो कहते कि खुलकर अपनी बात रखना किसी भी प्रचारक के लिये जरूरी है. ऐसा झूठ प्रसारित करने वाले नहीं कर सकते हैं. देर-सबेर सत्य और तार्किकता की जीत होगी. इसके लिये वे दोस्ती जरूरी मानते थे. वे अलग ही किस्म के वामपंथी थे. पूरी तरह आजाद, उदार और लचीले. वे किसी और अच्छी विचारधारा के मिलने पर प्रचलित वामपंथ को भी छोड़ने को तैयार थे. इसीलिये मैं उनको ‘कुजात मार्क्सवादी’ कहने का जोखिम उठाता हूं.

मैंने किताबें बेचते हुये कितनी ही बार लल्दा को देखा. छोटा फोल्डर, पोस्टर, पुस्तिका, पुस्तक या पत्रिका. जैसे अनुपम मिश्र ‘पर्यावरण के सबसे बड़े बाबू’ और ‘मास्टर’ थे, वैसे ही लाल बहादुर वर्मा ‘जन साहित्य और जन इतिहास के सबसे बड़े बाबू’ और ‘मास्टर’ थे. पर वे नाटक में हिस्सेदारी कर सकते थे और कोरस में भी. उनकी दोस्ती के तार चारों तरफ जुड़े थे.

उनसे भिखारी ठाकुर, बाॅब डिल्हन, फैज़, नाज़िम हिकमत, गिर्दा या भूपेन हजारिका को एक साथ सुन और गुन सकते थे और संगीत के बाद भृर्तहरि, ब्रेश्ट, नेरुदा या बाबा नागार्जुन की कोई कविता. जब वे दो बार गोलूछीना (अल्मोड़ा) आये तो हमने वीरेन डंगवाल के ‘आयेंगे उजले दिन जरूर आयेंगे’ गाया था. उनके साथ फैज़, एसडी. बर्मन या गिर्दा को गाना मेरी स्मृति का हिस्सा है. अपनी प्रतिभा के इतने प्रकारों को वे बहुत सहजता और स्वाभाविकता से प्रकट होने देते थे. कहीं घूमते हुये भी किसी जनगीत में शामिल होने में उन्हें कभी कोई दिक्कत न थी.

शिक्षण, प्रशिक्षण, लेखन, सम्पादन, संगठन-संस्था निर्माण तथा प्रबोधन के काम में जीवन खपाने वाले मुहब्बत से लबालब लाल को हिमालय से भी सलाम.

शेखर पाठक, इतिहासकार और पहाड़ के सम्पादक हैं.

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