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कानून | राजनीति

कृषि कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट का रुख उस धारणा को मजबूती देता दिखता है कि वह सरकार के साथ खड़ा है

कई लोग मानते हैं कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता वह सबसे जरूरी मुद्दा है जिस पर तुरंत और सबसे ज्यादा ध्यान दिये जाने की जरूरत है

विकास बहुगुणा | 14 जनवरी 2021 | फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स

‘हम समस्या हल करना चाहते हैं. अगर आप अनिश्चितकाल तक विरोध प्रदर्शन करना चाहते हैं तो कर सकते हैं.’

भारत के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे ने यह बात 12 जनवरी को कृषि से जुड़े तीन नए केंद्रीय कानूनों के अमल पर रोक लगाते हुए कही. इसके साथ ही उन्होंने इस मामले पर एक चार सदस्यीय समिति बनाने का ऐलान भी किया. यह समिति अपनी पहली बैठक से दो महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट शीर्ष अदालत को सौंपेगी. यह बैठक 10 दिन के भीतर होनी है. तीन सदस्यीय खंडपीठ की अगुवाई कर रहे मुख्य न्यायाधीश का कहना था, ‘हर उस शख्स को समिति के पास जाना चाहिए जो वास्तव में समस्या का हल चाहता है. समिति आपको कोई सजा नहीं देगी या फिर कोई आदेश पारित नहीं करेगी. वह हमें अपनी रिपोर्ट देगी. हम संगठनों की राय लेंगे. हम समिति इसलिए बना रहे हैं कि ताकि हम मामले को और भी स्पष्टता के साथ समझ सकें.’

हालांकि, इससे कुछ घंटे पहले ही इन कानूनों का विरोध कर रहे किसान संगठन ऐलान कर चुके थे कि वे किसी समिति के सामने नहीं जाएंगे. उनका तर्क था कि जब सरकार सुप्रीम कोर्ट में ही कह चुकी है कि वह इन तीनों कानूनों को वापस नहीं लेगी, जो कि उनकी मांग है, तो समिति के सामने जाना बेकार की कवायद है. यही नहीं, किसान संगठनों का यह भी कहना था कि समिति में जिन चार लोगों को शामिल किया गया है वे इन कानूनों का सार्वजनिक रूप से समर्थन कर चुके हैं इसलिए उनसे निष्पक्षता की उम्मीद नहीं की जा सकती.

ठीक इसी दलील के साथ और भी लोग इस समिति पर सवाल उठा रहे हैं. हालांकि, कई विश्लेषकों का कहना है कि इससे बड़ा और गंभीर मुद्दा दूसरा है. उनके मुताबिक इस मामले को हाल के कई दूसरे मामलों के साथ मिलाकर देखा जाए तो ऐसा लगता है मानो सुप्रीम कोर्ट, केंद्र सरकार के साथ खड़ा है. किसी भी लोकतंत्र की सेहत के लिए न्यायपालिका की कार्यपालिका से स्वतंत्रता बेहद अहम मानी जाती है. इसलिए कई मानते हैं कि इस समय सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता वह सबसे जरूरी मुद्दा है जिस पर अगर तुरंत ध्यान नहीं दिया गया तो हमारा लोकतंत्र पूरी तरह बैठ जाएगा.

किसान संगठनों के वकील और वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही पर निराशा जताई है. उनके मुताबिक सुनवाई के दौरान जब समिति बनाने की बात हुई तो उन्होंने शीर्ष अदालत से एक दिन का समय मांगा था ताकि वे किसान संगठनों से इस बारे में बात कर सकें, लेकिन उनके बार-बार अनुरोध के बावजूद अदालत ने इस पर ध्यान नहीं दिया. एक टीवी परिचर्चा के दौरान दुष्यंत दवे का कहना था, ‘बहस खत्म होने के बाद माननीय मुख्य न्यायाधीश ने साफ कह दिया कि हम फैसला सुरक्षित कर रहे हैं.’ यानी सुप्रीम कोर्ट ने समिति को लेकर किसानों की राय सुने बिना ही इसे बनाने का फैसला कर लिया और वह भी उन लोगों के साथ जो कानूनों के समर्थन में हैं.

इसके बाद अदालत में जो हुआ दुष्यंत दवे ने उस पर भी गंभीर सवाल उठाए हैं. दरअसल फैसले के दिन उनके और किसानों का पक्ष रख रहे दूसरे वकीलों के अदालत में मौजूद न रहने पर मुख्य न्यायाधीश ने नाराजगी जताई थी. इस बारे में पूछे जाने पर दुष्यंत दवे ने कहा कि अपनी 42 साल की प्रैक्टिस में उन्होंने कभी नहीं देखा कि फैसले के दिन किसी भी पक्ष के वरिष्ठ अधिवक्ता अदालत में मौजूद रहते हों. दुष्यंत दवे ने कहा, ‘हमारे वहां होने की कोई जरूरत ही नहीं थी.’ उनके मुताबिक वे तो इससे हैरान हैं कि अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता वहां कैसे थे. दुष्यंत दवे के मुताबिक अगर शीर्ष अदालत को उनकी मौजूदगी जरूरी लग रही थी तो उन्हें बताया जा सकता था. उन्होंने आगे आरोप लगाया कि एक तरफ तो उन्हें जान-बूझकर नहीं बुलाया गया और दूसरी तरफ इस पर नाराज़गी जताने के साथ-साथ अदालत ने फैसले में यह गलत बात भी लिख दी कि उन्होंने वादा किया है कि 26 जनवरी को किसान ट्रैक्टर रैली नहीं निकालेंगे. दुष्यंत दवे के मुताबिक उन्होंने ऐसा कोई वादा नहीं किया था.

कई लोग मानते हैं कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट वही करता दिख रहा है जो केंद्र सरकार चाहती है, यानी मामले को लंबा खींचना. उनके मुताबिक इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का मुख्य दायित्व केंद्र सरकार के इन कानूनों की वैधता और संवैधानिकता पर फैसला करना था, लेकिन वह उसी राह पर जाता नजर आ रहा है जो उसने नोटबंदी से लेकर चुनावी बॉन्ड्स जैसे इस तरह के तमाम मुद्दों पर अपनाई है. जैसा कि समाचार वेबसाइट द क्विंट के पत्रकार और कानूनी मामलों के विशेषज्ञ वी सचदेव अपने एक लेख में लिखते हैं, ‘एक बार फिर ऐसा लगता है कि अदालत को इन कानूनों की वैधता से जुड़ी दलीलें सुनने की कोई जल्दी नहीं है.’ उनके मुताबिक अदालत इस तरह के मामलों की सुनवाई में इस हद तक देर करती दिखती है कि ‘अब तो जो होना था हो चुका’ वाली स्थिति बन जाए. उन समेत दूसरे कई जानकार मानते हैं कि इस स्थिति का फायदा सिर्फ और सिर्फ केंद्र सरकार को होता है.

मुद्दे को विस्तार से समझने के लिए थोड़ा सा पीछे जाते हैं. फरवरी 2020 की बात है. भारत की राजधानी दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन का आयोजन था. भारत सहित दुनिया के कई देशों के जज इसमें हिस्सा ले रहे थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सम्मलेन का उद्घाटन किया. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जज अरुण मिश्रा को उनका धन्यवाद ज्ञापित करना था. इसी दौरान उनकी एक बात पर कइयों के कान खड़े हो गए. यह बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जुड़ी थी. जस्टिस अरुण मिश्रा का कहना था, ‘दूरदर्शी और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा पाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भारत अंतरराष्ट्रीय समुदाय का एक जिम्मेदार और सबसे दोस्ताना सदस्य है. हम एक प्रेरणादायी भाषण के लिए बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस जीनियस का धन्यवाद करते हैं जिसके पास वैश्विक स्तर की सोच है और जो स्थानीय हितों के लिए काम करता है.’

सुप्रीम कोर्ट में चलने वाले कई अहम मामलों में केंद्र सरकार एक पक्ष होती है. इसलिए अगर शीर्ष अदालत का कोई जज सार्वजनिक रूप से केंद्र सरकार के मुखिया की इस तरह से तारीफ करे तो लोगों का चौंकना स्वाभाविक है. जस्टिस अरुण मिश्रा के इस बयान की चौतरफा आलोचना हुई. आलोचना करने वालों में पूर्व जजों से लेकर सुप्रीम कोर्ट की बार एसोसिएशन और कई विपक्षी नेता शामिल थे. सबका मानना था कि जस्टिस अरुण मिश्रा के शब्द औपचारिक शिष्टाचार की सीमा से आगे जाते हैं. शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीश पीबी सावंत का कहना था, ‘सुप्रीम कोर्ट के किसी मौजूदा जज का इस तरह से प्रधानमंत्री की तारीफ करना सबसे गलत बात है.’ कई दूसरे जजों ने भी कहा कि शीर्ष अदालत में इस तरह की परंपरा नहीं रही है और इससे गलत संकेत जाता है. दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एपी शाह का कहना था, ‘ये पूरी तरह से अनावश्यक है और इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर संदेह होता है.’ सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने भी कहा कि इस तरह का बयान शीर्ष अदालत में मुकदमे लड़ रहे लोगों के मन में उसके फैसलों को लेकर शक पैदा कर सकता है.

शीर्ष अदालत में सब कुछ ठीक नहीं है, ऐसे आरोप खास कर जनवरी 2018 के बाद से तेज हुए हैं. तब सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों ने एक असाधारण प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी. इन सभी ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर सवाल खड़े किए थे और कहा था कि सुप्रीम कोर्ट में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जो नहीं होना चाहिए. इन जजों का यह भी कहना था कि मुख्य न्यायाधीश द्वारा देश के लिए दूरगामी नतीजों वाले कई अहम मसले बिना किसी उचित कारण के अपनी पसंद की पीठ को सौंपे जा रहे हैं. उनके मुताबिक संस्था को बचाने के लिए उन्होंने मुख्य न्यायाधीश को समझाने की कोशिश की थी जो विफल रही. मीडिया के सामने आने जैसे अभूतपूर्व कदम को अपनी मजबूरी बताते हुए जस्टिस जे चेलमेश्वर का कहना था, ‘हमने ये प्रेस कॉन्‍फ्रेंस इसलिए की ताकि हमें कोई ये न कहे कि हमने अपनी आत्मा बेच दी.’

इस प्रेस कॉन्फ्रेंस से यह संदे्श गया कि मुख्य न्यायाधीश – चाहे दबाव के चलते या फिर किसी अन्य कारण से – ऐसे फैसले चाह रहे हैं जो सरकार के हक में जाएं. तब से इस धारणा का विस्तार ही हुआ है कि सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार के हिसाब से काम कर रहा है. ऐसा होने की वजहें भी हैं. इनमें से एक बड़ी वजह वह घटना है जो जस्टिस अरुण मिश्रा के विवादित बयान के महीने भर के भीतर हुई थी. तब रिटायर होने के चार महीने बाद ही मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई राज्यसभा पहुंच गए थे. ये वही रंजन गोगोई थे जिन्होंने अपने तीन साथी जजों के साथ मिलकर वह चर्चित प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी जिसका मकसद सुप्रीम कोर्ट को बचाना था. इसके अलावा कभी उन्होंने खुद ही ही कहा था कि रिटायरमेंट के बाद इस तरह की नियुक्तियों से न सिर्फ आम लोगों की न्याय व्यवस्था में आस्था कमजोर होती है, बल्कि न्यायपालिका की आजादी में कार्यपालिका के दखल का खतरा भी बढ़ता है. लेकिन उसी केंद्र सरकार की तरफ से राज्यसभा जाने में उन्हें कोई हिचक नहीं हुई जो कई मामलों में उनके सामने पक्षकार की तरह पेश हुई होगी.

जजों के रिटायरमेंट से ठीक पहले के फैसले रिटायरमेंट के बाद जॉब की इच्छा से प्रभावित होते हैं, यह बात पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने 2012 में तब कही थी जब वे नेता प्रतिपक्ष थे. उनका कहना था, ‘मेरा सुझाव यह है कि रिटायरमेंट के बाद किसी नियुक्ति से पहले दो साल का अंतराल होना चाहिए. नहीं तो सरकार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से अदालतों को प्रभावित कर सकती है. ऐसे में देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका का सपना कभी पूरा नहीं होगा.’ लेकिन उन्हीं अरुण जेटली की पार्टी यानी भाजपा केंद्र की सत्ता में आने पर इस विचार के विपरीत जाने लगी. उसने सितंबर 2014 में पी सदाशिवम को केरल का राज्यपाल नियुक्त कर दिया. वे पांच महीने पहले ही देश के मुख्य न्यायाधीश के पद से रिटायर हुए थे. रंजन गोगोई रिटायरमेंट के चार महीने बाद ही राज्यसभा में पहुंच गए.

वैसे अपनी चौतरफा आलोचना के बाद रंजन गोगोई ने इस मुद्दे पर सफाई दी थी. उनका तर्क था कि विधायिका और न्यायपालिका को इस समय एक साथ काम करना चाहिए और उन्होंने इसी दृढ़ विश्वास के कारण राज्यसभा में नामांकन की पेशकश स्वीकार की है. उन्होंने कहा था, ‘संसद में मेरी उपस्थिति विधायिका के समक्ष न्यायपालिका के विचारों को प्रस्तुत करने का एक अवसर होगी. लेकिन बहुत से लोग मानते हैं कि अगर उनकी यही भावना थी तो वे अपनी राजनीतिक पार्टी बना सकते थे या फिर स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर लड़कर लोकसभा पहुंचने की कोशिश कर सकते थे. तब उनके ऊपर कोई सवाल नहीं उठता. लेकिन वे उस संस्था की तरफ से विधायिका पहुंचे जिससे जुड़े कई मामलों में उन्होंने न्यायाधीश की भूमिका निभाई थी.

जस्टिस रंजन गोगोई की अगुवाई वाली पीठ ने ही ऐतिहासिक अयोध्या मामले का फैसला सुनाया था जिससे विवादित भूमि पर राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ हुआ था. अयोध्या में राम मंदिर निर्माण केंद्र में सत्ताधारी भाजपा के प्रमुख एजेंडों में रहा है. अलावा रंजन गोगोई के समय में रफाल सौदे सहित कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट का जो रुख रहा उसे लेकर भी आरोप लगे कि न्यायपालिका और भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार एक ही पाले में खड़े दिख रहे हैं. विधि विशेषज्ञ गौतम भाटिया अपने एक लेख में आरोप लगाते हैं कि रंजन गोगोई के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट एक ‘ऐसी संस्था में तब्दील हो गया जो कार्यपालिका की भाषा बोलती है.’

इस सिलसिले में 25 नवंबर 2018 की एक घटना का जिक्र खास तौर पर किया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने बिम्सटेक (आर्थिक सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी से सटे हुए देशों का संगठन) में शामिल देशों के जजों के लिए एक रात्रिभोज का आयोजन किया था. रंजन गोगोई ने इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी न्योता दिया. प्रधानमंत्री वहां पहुंचे. रात्रिभोज संपन्न हुआ. सब विदा होने की तैयारी कर रहे थे कि अचानक नरेंद्र मोदी ने कहा कि वे मुख्य न्यायाधीश की अदालत यानी कोर्ट रूम 1 देखना चाहते हैं. आनन-फानन में चाबियां मंगाई गईं. कमरा खुलवाया गया, उसकी तलाशी ली गई और फिर मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री वहां पहुंचे. खबरों के मुताबिक इसके बाद चाय मंगवाई गई और दोनों के बीच खूब बातें हुईं. गौर करने वाली बात है कि इसी समय सुप्रीम कोर्ट में रफाल मामले की सुनवाई हो रही थी जिसमें बाद में सरकार को क्लीन चिट मिल गई थी. इसके अलावा शीर्ष अदालत में गुजरात दंगों के मामले में नरेंद्र मोदी को एसआईटी की क्लीन चिट के खिलाफ भी मामला लंबित है. यही वजह है कि इस मुलाकात पर काफी सवाल उठे थे.

सुप्रीम कोर्ट ने जजों के लिए के लिए एक आचार संहिता तय की है. इसमें कहा गया है कि जजों को अपने पद की प्रतिष्ठा के अनुरूप थोड़ा अलग-थलग रहना चाहिए. जानकारों के मुताबिक इसका मतलब यह है उन्हें ऐसे लोगों के साथ मिलने-जुलने से परहेज करना चाहिए, जिनके मामले उनके पास सुनवाई के लिए आने वाले हैं.

यहां वह मामला भी याद करना जरूरी है जिसमें सुप्रीम कोर्ट की एक कर्मचारी ने रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए थे. इसके बाद जिस तेजी और जिस प्रक्रिया से मुख्य न्यायाधीश को क्लीन चिट दी गई, वह भारत के न्यायिक इतिहास में अभूतपूर्व थी. न्याय का मूलभूत सिद्धांत है कि कोई भी व्यक्ति अपने ही मामले में जज नहीं हो सकता. लेकिन इसे धता बताते हुए जस्टिस गोगोई ने अपनी ही अध्यक्षता में तीन जजों की एक विशेष पीठ बना दी. फिर बतौर मुख्य न्यायाधीश और उसी न्यायिक पीठ के मुखिया के रूप में उन्होंने अपने ऊपर लगे आरोपों का खंडन कर दिया. जब इस पर हो-हल्ला मचा तो एक विशेष आंतरिक समिति बनाई गई. इसके बाद एक महीने से भी कम समय में इस पूरे मामले की जांच पूरी हो गई और मुख्य न्यायाधीश को आरोपों से मुक्त कर दिया गया.

न्याय व्यवस्था के संदर्भ में अंग्रेज़ी की एक मशहूर कहावत है कि ‘जस्टिस हरीड इज़ जस्टिस बरीड’. यानी हड़बड़ी में न्याय दफन हो जाता है. कई जानकारों की मानें तो आदर्श तरीका यह होता कि पूरे मामले की पड़ताल के लिए किसी ऐसी समिति का गठन किया जाता जिसमें सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश शामिल होते. इसके उलट इस मामले में वर्तमान जजों की ही समिति बनाई गई और उसने तमाम न्यायिक प्रक्रियाओं और सिद्धांतों की तिलांजलि देते हुए अपना फैसला सुना दिया. यही वजह है कि रंजन गोगोई को इस तरह से क्लीन चिट के खिलाफ सवाल उठे और सुप्रीम कोर्ट के बाहर प्रदर्शन भी हुए. कुछ समय बाद बात आई-गई हो गई.

वैसे ऐसा सिर्फ इस मामले में नहीं हुआ. सुप्रीम कोर्ट के जजों पर जब भी ऐसे आरोप लगे हैं तो कमोबेश ऐसा ही देखने को मिला है. इस संदर्भ में जस्टिस एके गांगुली और जस्टिस स्वतंत्र कुमार के मामलों को याद किया जा सकता है. लेकिन जो बात रंजन गोगोई के मामले को और भी संदेहास्पद बनाती है वह यह है कि इसमें केंद्र सरकार अनुचित तरीके से मुख्य न्यायाधीश का बचाव करती दिखी थी. उदाहण के लिए तब अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल और केंद्र सरकार के बीच गंभीर मतभेद की खबरें आई थीं. भारत सरकार के मुख्य कानूनी सलाहकार अटॉर्नी जनरल ने दरअसल सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों को एक चिट्ठी लिखी थी. इसमें उन्होंने सुझाव दिया था कि इस मामले की जांच के लिए जो आंतरिक समिति बनाई गई है उसमें सुप्रीम कोर्ट के जजों के अलावा बाहर के सदस्य भी होने चाहिए और अगर वे सेवानिवृत्त महिला जज हों तो और भी अच्छा होगा. बताया जाता है कि केंद्र सरकार ने इस पर नाराजगी जताई. यही नहीं, उसने अटॉर्नी जनरल से कहा कि वे सुप्रीम कोर्ट को एक चिट्ठी लिखकर कहें कि यह सरकार का नहीं बल्कि उनका व्यक्तिगत मत है. ऐसा ही हुआ भी.

इसके अलावा इस मामले की सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने भी रंजन गोगोई का बचाव किया था. उनका कहना था कि महिला के आरोप ब्लैकमेलिंग टेकनीक जैसे लग रहे हैं और उसके खिलाफ जांच होनी चाहिए. तुषार मेहता पहले गुजरात के एडवोकेट जनरल हुआ करते थे. बाद में वे पहले देश के एडिशनल सॉलिसिटर जनरल बने और फिर सॉलिसिटर जनरल. गुजरात में उन पर संवैधानिक पद का दुरुपयोग करने के आरोप लगे तो सॉलिसिटर जनरल रहते हुए वे सुप्रीम कोर्ट में वाट्सएप पर वायरल हुआ एक फर्जी संदेश उद्धृत करने जैसी कई गलत वजहों से भी चर्चा में रह चुके हैं.

तुषार मेहता को करीब तीन दशक से जानने वाले गुजरात के एक अधिवक्ता आनंद याग्निक चर्चित पत्रिका कैरवैन से बातचीत में कहते हैं, ‘अटॉर्नी जनरल, सॉलिसिटर जनरल या एडिशनल एटॉर्नी जनरल जैसे विधि अधिकारियों का दायित्व संविधान की रक्षा करना और कानून से संबंधित मामलों में सरकार को सलाह देना होता है. लेकिन आजकल वे एक ऐसे व्यक्ति हो गए हैं जिनके जरिए कार्यपालिका अपने अधिकारों के दायरे का विस्तार न्यायपालिका तक करने लगी है.’

रंजन गोगोई के बाद जस्टिस एसए बोबडे देश के 47वें मुख्य न्यायाधीश बने. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मदन लोकुर ने अपने एक लेख में कहा कि नए मुख्य न्यायाधीश के सामने मुख्य चुनौती सर्वोच्च अदालत की विश्वसनीयता और उसका कद बहाल करने की है. मदन लोकुर भी 2018 में असाधारण प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले शीर्ष अदालत के चार जजों में शामिल थे. उनका कहना था कि अगर इस मुद्दे पर तुरंत ध्यान नहीं दिया गया तो भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता खत्म होना तय है. उनके शब्द थे, ‘कुछ हालिया न्यायिक फैसलों और प्रशासनिक निर्णयों से ऐसा लगता है कि हमारे कुछ जजों को थोड़ी रीढ़ दिखाने की जरूरत है.’ कई मानते हैं कि उनका इशारा रंजन गोगोई की तरफ भी था.

एसए बोबडे को मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठे एक साल पूरा हो गया है. लेकिन न्यायपालिका के राजनीतिकरण के आरोप कम होने के बजाय तेज ही हुए हैं. जानकारों के मुताबिक इसकी प्रमुख वजह यह है कि देश के लिए दूरगामी परिणाम रखने वाले कई मामलों की सुनवाई शीर्ष अदालत में लगातार टल रही है. इनमें धारा 370, सीएए, चुनावी बॉण्ड और आरटीआई संशोधन जैसे अहम मामले शामिल हैं. खेती से जुड़े तीन कानून इस सिलसिले की सबसे नई कड़ी हैं. आरोप लगते हैं कि इन मामलों में दखल से सुप्रीम कोर्ट का लंबे समय तक बचने का सीधा फायदा सरकार को हो रहा है जो बगैर किसी हिचक के इन मोर्चों पर मनमर्जी से आगे बढ़े जा रही है.

उधर, आत्महत्या के लिए उकसाने के एक मामले में जेल में बंद रिपब्लिक टीवी के संपादक अर्णब गोस्वामी की जमानत याचिका पर सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने जो तेजी दिखाई उसने कइयों को हैरान कर दिया. अर्णब गोस्वामी और उनके चैनल का झुकाव केंद्र की सत्ता चला रही भाजपा की विचारधारा की तरफ माना जाता है. चार नवंबर को वे गिरफ्तार हुए और सुप्रीम कोर्ट में मामला पहुंचते ही 11 नवंबर को उन्हें जमानत मिल गई. उनकी याचिका की तत्काल सुनवाई हुई और वह भी तब जब सुप्रीम कोर्ट में दीवाली की छुट्टी थी.

नियमों के मुताबिक शीर्ष अदालत में छुट्टियों के दौरान मौत की सजा जैसे चुनिंदा और बेहद जरूरी मामलों में ही सुनवाई होनी चाहिए. यही वजह है कि अर्णब गोस्वामी को जमानत दिए जाने के तरीके पर सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने आपत्ति जताई. संस्था के अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने शीर्ष अदालत के सेक्रेटरी जनरल को चिट्ठी लिखी और आरोप लगाया कि इस मामले में ‘सलेक्टिव लिस्टिंग’ हुई, यानी अदालत के सामने सुनवाई के लिए अन्य मामलों में से इसे अनावश्यक रूप से प्राथमिकता दी गई. उनका यह भी कहना था कि जमानत और सुनवाई का हक ऐसे सैकड़ों लोगों को नहीं दिया जा रहा जो सत्ता के करीब नहीं हैं या साधनहीन हैं या फिर जो अलग-अलग आंदोलनों के जरिए लोगों की आवाज उठा रहे हैं, चाहे ये उनके लिए ज़िंदगी और मौत का सवाल हो.’ जाने-माने अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने भी दुष्यंत दवे की बात का समर्थन किया. एक ट्वीट में उन्होंने लिखा, ‘सीएए, 370, हेबियस कॉर्पस, चुनावी बांड आदि जैसे जीवन और मौत के मामले महीनों से सुनवाई के इंतजार में हैं, लेकिन अर्णब गोस्वामी की याचिकाएं कुछ घंटों के भीतर ही सूचीबद्ध हो जाती है. क्या वे कोई सुपर सिटिजन हैं?’

अब इसकी तुलना केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन के मामले से कीजिए. यह मामला भी सुप्रीम कोर्ट में ही है. सिद्दीक कप्पन को उत्तर प्रदेश पुलिस ने पांच अक्टूबर को तब गिरफ्तार कर लिया था जब वे एक दलित महिला के साथ बलात्कार और हत्या के मामले की कवरेज के लिए हाथरस जा रहे थे. उन पर यूएपीए एक्ट लगाया गया है. यह कानून सरकार को जांच के आधार पर ही किसी व्यक्ति को आतंकी घोषित करने का अधिकार देता है. छह अक्तूबर को ही केरल यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स ने कप्पन के लिए हेबियस कॉर्पस (बंदी प्रत्यक्षीकरण) याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल कर दी थी. लेकिन अभी तक उन्हें जमानत नहीं मिली है. बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका लगने के बाद पुलिस या संबंधित अथॉरिटी को किसी शख्स को हिरासत में रखने की वजह बतानी होती है और अगर कोई वाजिब वजह नहीं सामने आती है तो कोर्ट याचिकाकर्ता की रिहाई का आदेश देता है. इस याचिका पर सिर्फ हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट सुनवाई करता है. अर्णब गोस्वामी ने भी सुप्रीम कोर्ट में यही याचिका लगाई थी जिस पर तत्काल सुनवाई हुई और उन्हें राहत मिल गई.

उदाहरण और भी हैं. अगस्त 2019 में जब केंद्र में जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को अप्रभावी करने का फैसला किया तो राज्य के तीन पूर्व मुख्यंत्रियों फारुक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती सहित कई राजनेताओं को नजरबंद कर दिया गया था. कई राजनेता गिरफ्तार भी हुए. उसी महीने सुप्रीम कोर्ट में दो बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं दायर हुई थीं. लेकिन इन पर कई दिनों तक सुनवाई नहीं हुई. आखिर में जब सुनवाई हुई भी तो न तो केंद्र को कोई नोटिस भेजा गया और न ही यह जानने की कोशिश की गई कि संबंधित व्यक्ति गैरकानूनी ढंग से हिरासत में रखे गए हैं या नहीं. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मदन लोकुर सहित तमाम लोग मानते हैं कि इस तरह के मामलों में अदालत को फौरन नोटिस जारी करना चाहिए था और जो हुआ यह असामान्य और न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध था.

कई जानकारों की मानें तो सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों पर सरकार के नियंत्रण की कोशिशें इन शीर्ष अदालतों में होने वाली नियुक्तियों और तबादलों के मामले में भी दिखती हैं. उनके मुताबिक सरकार सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम द्वारा भेजे गए ऐसे जजों की फाइल दबाकर बैठ जाती है जो उसकी पसंद के नहीं होते. वे 2019 का एक उदाहरण देते हैं जब कोलेजियम ने गुजरात हाई कोर्ट के जज अकील कुरैशी को मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाने की सिफारिश की थी. अकील कुरैशी वही जज हैं जिन्होंने सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले में 2010 में अमित शाह को पुलिस हिरासत में भेजा था. कोलेजियम से उनका नाम सरकार के पास आया. सरकार ने फाइल रख ली और फिर करीब तीन महीने तक इस पर कुछ नहीं हुआ जबकि इस दौरान 18 अन्य नियुक्तियों को हरी झंडी मिल गई. इस पर जाने-माने कानूनविद् फली नरीमन के नेतृत्व में गुजरात हाई कोर्ट एडवोकेट एसोसिएशन सुप्रीम कोर्ट पहुंची. उसकी दलील थी कि सरकार इस मामले में जान-बूझकर निष्क्रियता बरत रही है. आखिर अकील कुरैशी की फाइल तीन महीने से भी अधिक समय तक अपने पास रखने के बाद सरकार ने इसे कोलेजियम को वापस भेज दिया. कोलेजियम अपनी मूल सिफारिश के साथ इस फाइल को वापस भेज सकता था जिससे यह सिफारिश मानना सरकार के लिए बाध्यकारी हो जाता. लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और अपनी सिफारिश में बदलाव कर अकील कुरैशी को त्रिपुरा हाई कोर्ट भेज दिया.

इसी तरह कुछ समय पहले दिल्ली हाईकोर्ट के जज जस्टिस मुरलीधर का पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में तबादला भी विवादों में रहा. यह तबादला उसी दिन हुआ जब जस्टिस मुरलीधर ने कपिल मिश्रा, प्रवेश वर्मा और अनुराग ठाकुर जैसे भाजपा के बड़े नेताओं पर एफआईआर न करने के लिए दिल्ली पुलिस को कड़ी फटकार लगाई थी. इन नेताओं पर फरवरी 2020 में देश की राजधानी में हुए दंगों के दौरान भड़काऊ भाषण देने का आरोप है. दिल्ली पुलिस गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करती है जिसकी कमान अमित शाह के पास है.

इन घटनाओं के बाद कांग्रेस हमेशा भाजपा पर न्यायपालिका के राजनीतिकरण का आरोप लगाती है. जैसे अकील कुरैशी वाले मामले में पार्टी प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि इसका मकसद न्याय के मंदिर को रिमोट से कंट्रोल करना है. हालांकि खुद उनकी पार्टी का रिकॉर्ड भी इस मामले में पूरी तरह से बेदाग नहीं है. 1973 में इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार ने जस्टिस एएन रे को देश का मुख्य न्यायाधीश बना दिया था जबकि उस वक्त उनसे वरिष्ठ तीन जज – जस्टिस जेएम शेलत, जस्टिस केएस हेगड़े और जस्टिस एएन ग्रोवर – सुप्रीम कोर्ट में मौजूद थे. तीनों ने बाद में अपने पद इस्तीफा दे दिया था. कहा जाता है कि इन तीनों जजों ने केशवानंद भारती मामले में सरकार के पक्ष का फैसला नहीं दिया था लिहाजा इन्हें लांघते हुए जस्टिस रे को मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया. सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था. भारत के न्यायिक इतिहास में मील का पत्थर माने जाने वाले केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दी थी कि संसद संविधान में संशोधन तो कर सकती है, लेकिन शर्त यही है कि इससे संविधान के मूलभूत ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए. असल में इससे पहले प्रिवी पर्स सहित कई मामलों में इंदिरा गांधी ने संविधान संशोधन के जरिये सुप्रीम कोर्ट के फैसले पलट दिए थे.

भारतीय संविधान पर अपनी बहुचर्चित किताब ‘वर्किंग ए डेमोक्रेटिक कांस्टिट्यूशन – द इंडियन एक्सपीरियंस’ में मशहूर इतिहासकार ऑस्टिन ग्रैनविल लिखते हैं कि जस्टिस एएन रे अक्सर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से फोन पर बात करते थे. उनके मुताबिक कई बार मुख्य न्यायाधीश प्रधानमंत्री के निजी सचिव को भी फोन करके उनसे सलाह लिया करते थे. जस्टिस एएन रे के ही कार्यकाल के दौरान देश भर में आपातकाल लगाया गया था. कहा जाता है कि इस दौरान सुप्रीम कोर्ट इंदिरा सरकार के आगे नतमस्तक था. तब विपक्ष के कई नेताओं को हिरासत में लिया गया था और कई उच्च न्यायालयों ने इसके खिलाफ आदेश पारित किए थे. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 23 उच्च न्यायालयों के ऐसे आदेशों को पलट दिया था. यानी वह नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर रही सरकार के साथ खड़ा दिख रहा था.

केशवानंद भारती मामले में सबसे महत्वपूर्ण फैसला लिखवाने वाले जस्टिस एचआर खन्ना को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ा था. कुछ साल बाद उन्हें भी वरिष्ठता के बावजूद नज़रंदाज़ किया गया और उनकी जगह जस्टिस एमएच बेग को देश का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया. जस्टिस खन्ना ने भी तब अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था. हालांकि अच्छी बात यह रही कि इंदिरा गांधी वाले उस दौर में लगी चोटों से न्यायपालिका कुछ सालों में उबर आई और उसने अपनी खोई ताकत दोबारा हासिल कर ली. जनहित याचिका की अवधारणा के जरिये शीर्ष अदालत ने देश में न्यायिक एक्टिविज्म की शुरुआत की और इसके चलते उसे एक समय दुनिया का सबसे शक्तिशाली सुप्रीम कोर्ट कहा जाने लगा था. लेकिन रामचंद्र गुहा जैसे कई जानकारों की मानें तो अब जो चोटें उसे लग रही हैं उनसे उबरने में उसे कितना समय लगेगा, कोई नहीं कह सकता.

वापस किसान आंदोलन पर आते हैं. कई जानकारों के मुताबिक यह दिलचस्प है कि किसान तो लगातार कह रहे हैं कि वे आंदोलन और सरकार से बातचीत जारी रखेंगे लेकिन केंद्र सरकार अब कह रही है कि फैसला सुप्रीम कोर्ट करे तो बेहतर है. यानी इस तरह से उसने अब सुप्रीम कोर्ट को आगे कर दिया है. एक वर्ग के मुताबिक इससे सरकार को एक तो मामला टालने का रास्ता मिल गया है और दूसरा, अगर गतिरोध बना रहता है तो वह यह कह सकती है कि किसानों को सुप्रीम कोर्ट पर भी भरोसा नहीं है.

पूर्व मुख्य न्यायाधीश मुहम्मद हिदायतुल्लाह ने कभी कहा था कि देश को ऐसे न्यायाधीशों की जरूरत है जो भविष्यदृष्टा हों, न कि ऐसे जो सिर्फ अपना भविष्य देख रहे हों. शीर्ष अदालत की घटती साख वाले इस दौर में यह बात सुधार की कुंजी साबित हो सकती है, बशर्ते इस पर सही नीयत के साथ काम हो.

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